तंत्र, अध्यात्म और काम (तांत्रत्रक-प्रेम त्रित्रियों के संबंि में छः प्रिचन) (Translated from English - Tantra, Spirituality & Sex.) प्रिचन-क्रम 1. तंत्र और योग ...................................................................................................................... 2 2. का अंश, तांत्रत्रक प्रेम ............................................................................................................ 9 3. काम में समग्र समर्पण......................................................................................................... 15 4. तांत्रत्रक काम-क्रीडा की आध्यात्रममकता.................................................................................. 18 5. तंत्र के माध्यम से र्रम संभोग ............................................................................................. 31 6. तंत्र- सर्र्पण का मागप ......................................................................................................... 44 1 तंत्र, अध्यात्म और काम पहला प्रिचन तंत्र और योग प्रश्नः भगवान, र्ारंर्ाररक योग और तंत्र में क्या अंतर है? क्या वे दोनों समान हैं? तंत्र और योग मौत्रिक रूर् से त्रभन्न हैं। वे एक ही िक्ष्य र्र र्हंचते हैं, िेककन मागप केवि अिग-अिग ही नहीं, बत्रकक एक दूसरे के त्रवर्रीत भी हैं। इसत्रिए इस बात को ठीक से समझ िेना जरूरी है। योग की प्रकक्रया तत्त्व-ज्ञान प्रणािी-त्रवज्ञान भी है, योग त्रवत्रि भी है। योग दशपन नहीं है। तंत्र की भांत्रत योग भी कक्रया, त्रवत्रि, उर्ाय र्र आिाररत है। योग में करना होने की ओर िे जाता है, िेककन त्रवत्रि त्रभन्न है। योग में व्यत्रि को संघर्प करना र्ड़ता है; वह योद्धा का मागप है। तंत्र के मागप र्र संघर्प त्रबककुि नहीं है। इसके त्रवर्रीत उसे भोगना है, िेककन होशर्ूवपक, बोिर्ूवपक। योग होशर्ूवपक दमन है, तंत्र होशर्ूवपक भोग है। तंत्र कहता है कक तुम जो भी हो, र्रम-तत्त्व उसके त्रवर्रीत नहीं है। यह त्रवकास है, तुम उस र्रम तक त्रवकत्रसत हो सकते हो। तुम्हारे और समय के बीच कोई त्रवरोि नहीं है। तुम उसके अंश हो, इसत्रिए प्रकृत्रत के साथ संघर्प की, तनाव की, त्रवरोि की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें प्रकृत्रत का उर्योग करना है; तुम जो भी हो उसका उर्योग करना है, ताकक तुम उसके र्ार जा सको। योग में र्ार जाने के त्रिए तुम्हें स्वयं से संघर्प करना र्ड़ता है। योग में संसार और मोक्ष, तुम जैसे हो और जो तुम हो सकते हो, दोनों एक दूसरे के त्रवर्रीत हैं। दमन करो, उसे त्रमटाओ जो तुम होः ताकक तुम वह हो सको जो तुम हो सकते हो। योग में र्ार जाना मृमयु है। अर्ने वास्तत्रवक स्वरूर् के जन्म के त्रिए तुम्हें मरना होगा। तंत्र की दृत्रि में, योग एक गहरा आममघात है। तुम्हें अर्ने प्राकृत्रतक रूर्, अर्ने शरीर, अर्नी वृत्रियों अर्नी इच्छाओं को- सब कुछ को मार देना होगा, नि कर देना होगा। तंत्र कहता है, "तुम जैसे हो, उसे वैसे ही स्वीकार करो।" तंत्र गहरी से गहरी स्वीकृत्रत है। अर्ने और समय के बीच, संसार और त्रनवापण के बीच कोई अंतराि मत बनाओ। तंत्र के त्रिए कोई अंतराि नहीं है, मृमयु जरूरी नहीं है। तुम्हारे र्ुनजपन्म के त्रिए ककसी मृमयु की जरूरत नहीं है, बत्रकक अत्रतक्रमण की आवश्यकता है। इस अत्रतक्रमण के त्रिए स्वयं का उर्योग करना है। उदाहरण के त्रिए- काम है, सेक्स है। वह बुत्रनयादी ऊजाप है त्रजसके माध्यम से तुम र्ैदा हए हो। तुम्हारे अत्रस्तत्त्व के, तुम्हारे शरीर के बुत्रनयादी कोश काम के हैं। यही कारण है कक मनुष्य का मन काम के इदप त्रगदप ही घूमता रहता है। योग में इस ऊजाप से िड़ना अत्रनवायप है। वहां िड़कर ही तुम अर्ने भीतर एक त्रभन्न केंद्र को त्रनर्मपत करते हो। त्रजतना तुम िड़ते हो उतना ही तुम उस त्रभन्न केंद्र से जुड़ते जाते हो। तब काम तुम्हारा केंद्र नहीं रह जाता। काम से संघर्प- त्रनत्रित ही होशर्ूवपक- तुम्हारे भीतर अत्रस्तत्त्व का एक नया केंद्र त्रनर्मपत कर देता है। तब काम तुम्हारी ऊजाप नहीं रह जाएगा। काम से िड़कर तुम अर्नी ही ऊजाप त्रनर्मपत कर िोगे एक अिग प्रकार की ही ऊजा,प एक अिग प्रकार का अत्रस्तत्त्व-केंद्र र्ैदा होगा। तंत्र के त्रिए, काम-ऊजाप का उर्योग करो, उससे िड़ो मत। उसे रूर्ांतररत करो। उसे शत्रु मत समझो, उससे त्रमत्रता बनाओ। वह तुम्हारी ही ऊजाप है; वह र्ार् नहीं है, वह बुरी नहीं है। प्रमयेक ऊजाप तटस्थ है। उसका उर्योग 2 तुम्हारे त्रहत में ककया जा सकता है और तुम्हारे त्रवरुद्ध भी ककया जा सकता है। तुम उसे अवरोिक भी बना सकते हो और सीढ़ी भी बना सकते हो। उसका उर्योग हो सकता है। सही ढंग से उर्योग करने र्र त्रमत्र बन जाती है। गित उर्योग र्र वह तुम्हारी शत्रु हो जाती है। वह दोनों ही नहीं है। ऊजाप तटस्थ है। सािारण आदमी त्रजस तरह यौन का काम का उर्योग करता है वह उसका शत्रु बन जाता है, उसे नि कर देता है, उसकी शत्रि का क्षय करता है। योग की दृत्रि ठीक इसके त्रवर्रीत है- सािरण मन के त्रवर्रीत। सािारण त्रचि अर्नी ही वासनाओं से त्रवनि होता जाता है। इसत्रिए योग कहता है, "वासना छोड़ो और वासना-शून्य हो जाओ।" वासना से िड़ो और अर्ने भीतर एक संघटन, इनटेग्रेशन र्ैदा करो जो वासना रत्रहत हो। तंत्र कहता है, "वासना के प्रत्रत जागो।" उससे संघर्प मत करो। वासना में र्ूरी सजगता के साथ प्रवेश करो और जब तुम र्ूरी होश से वासना में प्रवेश करते हो, तुम उसका अत्रतक्रमण कर जाते हो। तब तुम उसमें होकर भी उसमें नहीं होते। तुम उसमें से गुजरते हो िेककन अजनबी बने रहते हो, अछूते रह जाते हो। योग बहत अत्रिक आकर्र्पत करता है क्योंकक योग सािारण त्रचि के त्रबककुि त्रवर्रीत है। इसत्रिए सािारण त्रचि योग की भार्ा समझ सकता है। तुम यह जानते हो कक ककस भांत्रत काम तुम्हें त्रवनि कर रहा है, इसने तुम्हें ककस तरह नि कर कदया है, ककस तरह तुम इसके इदप त्रगदप गुिामों की भांत्रत, कठर्ुतत्रियों की भांत्रत घूमते रहते हो। अर्ने अनुभव से तुम यह जानते हो। इसत्रिए जब योग कहता है "इससे संघर्प करो" तुम तमकाि इस भार्ा को समझ जाते हो। यही आकर्पण है, योग का सुगम आकर्पण है। तंत्र इतनी सरिता से आकर्र्पत नहीं करता। यह मुत्रश्कि िगता है कक कैसे इच्छा के त्रबना, उसके द्वारा अत्रभभूत हए प्रवेश ककया जा सकता है? कामवासना में र्ूरी होश से ककस प्रकार प्रवृि हआ जा सकता है? सािरण त्रचि भयभीत हो जाता है। यह खतरनाक िगता है, ऐसा नहीं कक यह खतरनाक है। जो कुछ भी तुम काम के संबंि में जानते हो, वह तुम्हारे त्रिए खतरा उमर्न्न करता है। तुम अर्ने को जानते हो, तुम जानते हो कक तुम ककस प्रकार स्वयं को िोखा दे सकते हो। तुम भिीभांत्रत जानते हो कक तुम्हारा मन चािाक है। तुम वासना में काम वासना में सभी वासनाओं में प्रवृि हो सकते हो, और अर्ने को िोखा दे सकते हो कक तुम र्ूरी होश के साथ उसमें प्रवृत हो रहे हो। यही कारण है कक तुम्हें खतरे का अहसास होता है। खतरा तंत्र में नहीं है, तुम में है, तुम में है। और योग का आकर्पण भी तुम्हारे कारण है। तुम्हारे सािारण मन, तुम्हारा काम-दत्रमत, काम का भूखा कामांि त्रचि इसका कारण है। क्योंकक सािारण मन काम के संबंि में स्वस्थ नहीं है, इसत्रिए योग के त्रिए आकर्पण है। एक बेहतर मनुष्यता त्रजसका काम के प्रत्रत स्वस्थ, नैसर्गपक, सहज स्वाभात्रवक दृत्रिकोण होगा... हम सामान्य और प्रकृत नहीं है। हम सवपथा असामान्य हैं, अस्वस्थ और त्रवत्रक्षप्त हैं। िेककन, क्योंकक सभी हम जैसे हैं, इसत्रिए हमें इसका अहसास नहीं होता। र्ागिर्न इतना सामान्य है कक शायद र्ागि न होना असामान्य प्रतीत होता है। हमारे बीच एक बुद्ध असामान्य हैं, एक जीसस असामान्य है। वे इमसे अन्यथा मािूम होते है। यह सामान्यता, एक रोग है। इसी सामान्य त्रचि में योग का आकर्पण र्ैदा होता है। यकद काम को उसकी स्वाभात्रवकता से ग्रहण करो, यकद उसके त्रगदप र्क्ष या त्रवर्क्ष का कोई दशपनशास्त्र न खड़े करो, ऐसे ही देखो जैसे अर्ने हाथ-र्ांव को देखते हो, एक स्वाभात्रवक चीज की तरह उसे उसकी समग्रता से स्वीकार करो, तन तंत्र आकर्र्पत करेगा, और तभी केवि तंत्र ही बहत से िोगों के त्रिए उर्योगी त्रसद्ध होगा। िेककन तंत्र के कदन आ रहे हैं। देर-अबेर र्हिी बार जन-सािारण में तंत्र का त्रवस्फोट होने वािा है। र्हिी बार जमाना र्ररर्क्व हआ है- काम को प्राकृत्रतक रूर् में ग्रहण करने के त्रिए र्ररर्क्व। और संभव है कक यह त्रवस्फोट 3 र्हिे र्त्रिम में हो, क्योंकक फ्रायड, जुंग और रेख ने र्ृष्ठभूत्रम तैयार कर दी है। उन्हें तंत्र के बारे में कुछ र्ता नहीं था, िेककन उन्होंने तंत्र के त्रवकास के त्रिए बुत्रनयादी भूत्रम तैयार कर दी है। र्ािामय मनोत्रवज्ञान इस त्रनष्कर्प र्र र्हंच गया है कक मनुष्य की बुत्रनयादी बीमारी कहीं न कहीं काम से संबंत्रित है, उसका बुत्रनयादी र्ागिर्न काम-केंकद्रत। इसत्रिए जब तक मनुष्य काम-अत्रभमुख है, वह स्वाभात्रवक, सामान्य नहीं हो सकता। काम के प्रत्रत अर्नी इस मनोवृत्रि के कारण ही मनुष्य गित हो गया है। ककसी भी भाव या त्रवचार की जरूरत नहीं है और तभी तुम स्वाभात्रवक हो सकते हो। अर्नी आंखों के बारे में तुम्हारा क्या त्रवचार है? क्या वे दुि हैं या कदव्य? क्या तुम अर्नी आंखों के र्क्ष में हो या त्रवर्क्ष में? कोई भी र्क्षर्ात नहीं। इसीत्रिए तुम्हारी आंखें सामान्य हैं। कोई भी रवैया अर्ना िो, सोचों कक आंखें बुरी हैं, तब उनसे देखना मुत्रश्कि हो जाएगा। तब देखना ककसी समस्या का रूर् िे िेगा, जैसे अभी काम है, यान है। तब तुम देखना चाहोगे। तुम देखने की इच्छा करोगे, देखने के त्रिए व्यग्र हो जाओगे। िेककन जब तुम देखोगे, स्वयं को अर्रािी समझोगे; जब भी देखोगे िगेगा कक कुछ गित हो गया है। कुछ र्ार् हो गया है। और तब तुम दृत्रि के यंत्र को ही नि कर देना चाहोगे; आंखों को ही नि कर देना चाहोगे। और त्रजतना ही नि करना चाहोगे, उतना ही तुम आंख-केंकद्रत हो जाओगे। तब एक त्रवसंगत्रत उमर्न्न होगी, तुम ज्यादा से ज्यादा देखना भी चाहोगे और ज्यादा से ज्यादा अर्रािी भी अनुभव करोगे। काम-केंद्र के साथ भी यही दुघपटना घटी है। तंत्र कहता है, "तुम जो भी हो उसे स्वीकार करो। यही मूिस्वर है।" समग्र स्वीकार और केवि समग्र स्वीकार के माध्यम से ही तुम त्रवकास कर सकते हो। तब उस ऊजाप का उर्योग करो जो तुम्हारे र्ास है। र्र उसका उर्योग कैसे करोगे? र्हिे उन्हें स्वीकार करो, कफर खोजो कक ये शत्रियां क्या हैं? काम क्या है? तथ्य क्या है? हम उससे र्ररत्रचत नहीं हैं। हम काम के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह दूसरों ने हमें त्रसखाया है। हम काम-भोग से गुजरे भी होंगे, िेकन दत्रमत मन से, अर्राि भाव से, जकदी-जकदी, जैसे कोई बोझ उतारना है, हकका होना है। काम-भोग कोई त्रप्रय कृमय नहीं है। तुम प्रसन्नता अनुभव नहीं करते, िेककन तुम छोड़ भी नहीं सकते। त्रजतना ही तुम उसे छोड़ना चाहते हो उतना ही वह आकर्पक होता जाता है। त्रजतना ही तुम उसे नकारते हो, उतना ही वह तुम्हें त्रनमंत्रत्रत करता मािूम होता है। तुम काम वासना को नकार नहीं सकते, िेककन नकारने की नि करने की मनोवृत्रि उस मन को ही, उस होश को ही, उस संवेदनशीिता को ही नि कर देती है, जो काम वासना को समझ सकती है। इसत्रिए तुम त्रबना ककसी संवेदना के ही काम भोग करते रहते हो। और तब तुम उसे समझ नहीं र्ाते। केवि गहरी संवेदनशीिता ही ककसी चीज को समझ सकती है; उसके प्रत्रत गहरा भाव, गहरी सहानुभूत्रत और उसमें गहरी गत्रत ही ककसी चीज को समझ सकती है। तुम काम को केवि तभी समझ सकते हो, जब तुम उसके र्ास ऐसे जाओ जैसे कत्रव फूिों के र्ास जाता है। अगर फूिों के साथ अर्राि अनुभव करो तो तुम फुिवारी से आंखें बंद ककये गुजर जाओगे; तुम बड़ी जकदबाजी में होओगे- एक त्रवत्रक्षप्त जकदबाजी। ककसी कदर त्रनकि भागने की कफक्र िगी रहेगी। कफर तुम सजग, होशर्ूणप कैसे रह सकते हो। इसत्रिए तंत्र कहता है, "तुम जो भी हो उसे स्वीकार करो।" तुम अनेक बह-आयामी ऊजापओं के महान रहस्य हो, उसे स्वीकार करो। और प्रमयेक ऊजाप के साथ, गहरी संवेदनशीिता, और सजगता से, प्रेम और बोि के साथ यात्रा करो। उसके साथ यात्रा करो... तब ऊजाप प्रमयेक वासना के अत्रतक्रमण का वाहन बन जाती है। तब प्रमयेक ऊजाप सहयोगी हो जाती है। और तब संसार ही त्रनवापण हो जाता है। योग त्रनर्ेि है, तंत्र त्रविेय है। योग द्वैत की भार्ा में सोचता है, इसत्रिए यह योग शब्द है। योग का अथप है-दो चीजों को जोड़ना। उनका जोड़ा बनाना। िेककन वहां चीजें दो हैं, वहां द्वैत है। तंत्र कहता है, "द्वैत नहीं है। और अगर 4 द्वैत है तो तुम उसे एक नहीं कर सकते। ककतना भी प्रयत्न करो, दो रहेंगे ही, ककतना भी दो के दो रहेंगे ही। संघर्प जारी रहेगा; द्वैत बना रहेगा।" अगर संसार और र्रमाममा दो हैं तो वे एक में नहीं जोड़े जा सकते। और अगर वे यथाथप में दो नहीं है, दो की तरह त्रसफप भागते हैं, तो ही वे एक हो सकते हैं। अगर तुम्हारा शरीर और आममा दो है तो उनको जोड़ने का उर्ाय नहीं है। दो वे रहेंगे। तंत्र कहता है, "द्वैत नहीं है, वह मात्र आभास है।" इसत्रिए आभास को मजबूत बनाने की जरूरत क्या है? इस आभास को मजबूत होने में सहयोग क्यों कदया जाए? इसी क्षण इसे समाप्त करो और एक हो जाओ। और एक होने के त्रिए स्वीकार चात्रहए, संघर्प नहीं। स्वीकार एक करता है। संसार को स्वीकारो, शरीर को स्वीकारो; उस सबको स्वीकारो जो उसमें त्रनत्रहत है। अर्ने भीतर दूसरा केंद्र मत त्रनर्मपत करो। क्योंकक तंत्र की दृत्रि में वह दूसरा केंद्र अहंकार के त्रसवाय कुछ नहीं है। स्मरण रहे, तंत्र की दृत्रि में वह अहंकार ही है। इसत्रिए अहंकार को मत खड़ा करो, त्रसफप बोि रखो कक तुम क्या हो। और अगर िड़ोगे तो अहंकार वहां होगा ही। इसत्रिए ऐसा योगी खोजना मुत्रश्कि है जो अहंकारी न हो। सच में मुत्रश्कि है। योगी त्रनरहंकाररता की बात ककये जाते हैं, िेककन वे त्रनरहंकारी नहीं हो सकते। उनकी र्द्धत्रत ही अहंकार त्रनर्मपत करती है। और संघर्प वह र्द्धत्रत है, प्रकक्रया है। अगर िड़ोगे तो त्रनत्रित ही- अहंकार को र्ैदा करोगे। त्रजतना तुम िड़ोगे उतना अहंकार बिवान होगा। और अगर िड़ाई में जीत गए तो, तुम्हारा अहंकार र्रम हो जाएगा। तंत्र कहता है, "संघर्प नहीं।" और तब अहंकार की संभावना नहीं। िेककन अगर हम तंत्र की मानें तो बहत सी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। क्योंकक अगर हम िड़ते नहीं तो हमारे त्रिए भोग ही रह जाता है। हमारे त्रिए "संघर्प नहीं" का मतिब होता है भोग। और तब हम भयभीत हो जाते हैं। जन्मों-जन्मों हम भोग में डूबे रहे और कहीं नहीं र्हंचे। िेककन हमारा जो भोग है वह तंत्र का भोग नहीं है। तंत्र कहता है, "भोगो, िेककन होश के साथ।" अगर तुम क्रोत्रित हो तो तंत्र यह नहीं कहेगा कक क्रोि मत करो। वह कहेगा कक र्ूरी तरह क्रोि करो, िेककन साथ ही उसके प्रत्रत सजग भी रहो। तंत्र क्रोि के त्रखिाफ नहीं है। तंत्र आध्यात्रममक नींद, आध्यात्रममक मूच्छाप के त्रखिाफ है। होश रखो और क्रोि करो। और तंत्र का यही ग्रह्य रहस्य है कक अगर तुम होशर्ूणप रहे तो क्रोि रूर्ांतररत हो जाता है, क्रोि करुणा बन जाता है। इसत्रिए तंत्र के अनुसार क्रोि तुम्हारा शत्रु नहीं है; क्रोि बीज रूर् में करुणा है। क्रोि की ऊजाप ही करुणा बन जाती है। और अगर तुम उससे िड़ते हो तो करुणा की संभावना समाप्त हो जाती है। इसत्रिए अगर तुम दमन में सफि हए तो मृत हो जाओगे। दमन के कारण क्रोि तो नहीं रहेगा, िेककन उसी कारण करुणा भी जाती रहेगी। क्योंकक क्रोि ही करुणा बनता है। अगर तुम काम के दमन में सफि हो गए- जो कक संभव है- तो काम तो नहीं रहेगा, िेककन उसके साथ प्रेम भी नहीं रहेगा। क्योंकक काम के मर जाने र्र वह ऊजाप ही नहीं बचती जो प्रेम में त्रवकत्रसत होती है। तुम काम-रत्रहत तो हो जाओगे, र्र साथ ही प्रेम-रत्रहत भी हो जाओगे। और तब तो असिी बात ही चूक गए, क्योंकक प्रेम के त्रबना भगविा नहीं है। और प्रेम के त्रबना मुत्रि नहीं है, और प्रेम के त्रबना स्वतंत्रता नहीं है। तंत्र का कहना है कक इन्हीं ऊजापओं को रूर्ांतररत करना है। इसी बात को दूसरे ढंग से भी कहा जा सकता है। यकद तुम संसार के त्रवरुद्ध हो तो त्रनवापण संभव नहीं है, क्योंकक संसार को ही तो त्रनवापण में रूर्ांतररत करना है। तब तुम उन्हीं बुत्रनयादी शत्रियों के ही त्रखिाफ हो गए जो कक शत्रियों के स्रोत हैं। 5 इसत्रिए तंत्र की कीत्रमयां कहती है कक िड़ो मत, सभी शत्रियां जो भी तुम्हें त्रमिी हैं उन्हें त्रमत्र बना िो। उनका स्वागत करो। तुम इसे अहोभाग्य समझो कक तुम्हारे र्ास क्रोि है, कक तुम्हारे र्ास काम-वासना है, कक तुम्हारे र्ास िोभ है। अर्ने को िन्यभागी समझो क्योंकक वे अप्रकट स्रोत हैं। और उन्हें रूर्ांतररत ककया जा सकता है और उन्हें प्रकट ककया जा सकता है। और जब काम-वासना रूर्ांतररत होती है तो प्रेम बन जाती है। त्रवर् खो जाता है, कुरूर्ता खो जाती है। बीज कुरूर् है, िेककन वही जब जीत्रवत होता है, अंकुररत होता है, र्ुत्रष्र्त होता है, तब उसका सौंदयप प्रकट होता है। बीज को मत फेंकना, क्योंकक तब तुम उसके साथ फूिों को भी फेंक रहे हो। वे अभी उनमें नहीं हैं अभी प्रकट नहीं हैं कक तुम उन्हें देख सको। वे अप्रकट है िेककन हैं। बीज का उर्योग करो ताकक तुम फूिों को प्राप्त कर सको। इसत्रिए र्हिे स्वीकृत्रत, एक अत्रत संवेदनशीि बोि और होश- तब भोग की अनुमत्रत है। एक बात और, जोकक वास्तव में बहत ही हैरानी की है, िेकन वह तंत्र की गहरी से गहरी खोजों में से एक है। और वह हैः त्रजसे भी तुम शत्रु मान िेते हो चाहे वह िोभ हो, क्रोि हो, घृणा हो, या काम हो, जो भी हो तुम्हारा मानना ही उन्हें शत्रु बना देता है। उन्हें र्रमाममा का वरदान समझो और कृतज्ञ हृदय से उनके र्ास जाओ। उदाहरण के त्रिए, तंत्र ने काम-ऊजाप को रूर्ांतररत करने की अनेक त्रवत्रियां त्रवकत्रसत की हैं। काम-वासना में ऐसे प्रवेश करते जाओ जैसे कोई र्रमाममा के मंकदर में प्रवेश करता है। काम, कृमय को ऐसे िो जैसे कक वह प्राथपना है, जैसे कक वह ध्यान है। उसकी र्त्रवत्रता को अनुभव करो। इसीत्रिए खजुराहो, र्ुरी, कोणापक सभी मंकदरों में मैथुन की मूर्तपयां बनी हैं। मंकदर की दीवारों र्र काम-क्रीडा के त्रचत्र बे-तुके िगते हैं- खासकर ईसाइयत, इस्िाम और जैन िमप की आंखों में। उन्हें यह बात र्रस्र्र त्रवरोिी मािूम होती है कक मैथुन के त्रचत्रों का मंकदर से क्या संबंि हो सकता है? खजुराहो के मंकदर की बाहरी दीवारों र्र संभोग की, मैथुन की हर संभव मुद्रा र्मथरों में अंककत है। क्यों? ममंंंदर में कम से कम उनका कोई स्थान नहीं है मनों में हो सकता हैं। ईसाइयत इस बात की ककर्ना भी नहीं कर सकती कक चचप की दीवारों र्र खजुराहो जैसे त्रचत्र खुदे हों। असंभव! आिुत्रनक महंदू भी इस बात के त्रिए अर्ने को अर्रािी अनुभव करते हैं। इसका कारण है कक आिुत्रनक महंदू- मानस भी ईसाइयत के द्वारा त्रनर्मपत हआ है। वे महंदू-ईसाई है, और वे बदिर हैं- क्योंकक ईसाई होना तो ठीक है, िेककन महंदू-ईसाई होना बेहूदा है। वे अर्रािी अनुभव करते हैं। एक महंदू नेता र्ुरुर्ोतमदास टंडन ने तो यहां तक सिाह दी कक इन मंकदर को ध्वस्त कर देना चात्रहए। वे हमारे नहीं हैं। सच ही वे हमारे नहीं मािूम र्ड़ते क्योंकक बहत कदनों से, सकदयों से तंत्र हमारे हृदयों से त्रनवापत्रसत रहा। तंत्र हमारी मुख्य िारा नहीं रहा। योग मुख्य िारा रहा। और योग खजुराहो की बात सोच भी नहीं सकता। इसे नि कर देना चात्रहए। तंत्र कहता है कक संभोग में ऐसे प्रवेश करो जैसे कोई र्त्रवत्र मंकदर में प्रवेश कर रहा हो। इसी कारण र्त्रवत्र मंकदरों की दीवारों र्र उन्होंने संभोग के त्रचत्र अंककत ककए उन्होंने कहा कक काम-भोग में ऐसे उतरो जैसे तुम मंकदर में प्रवेश करते हो। इसत्रिए जब तुम ककसी र्त्रवत्र मंकदर में प्रवेश करते हो, वहां संभोग के त्रचत्र इसत्रिए हैं कक तुम्हारा मन दोनों में संबंत्रित हो जाए, दोनों का साहचयपगत संबंि स्थात्रर्त हो जाए, ताकक तुम यह अनुभव कर सको कक संसार और र्रमाममा दो त्रवरोिी तत्त्व नहीं है, बत्रकक एक हैं वे र्रस्र्र त्रवरोिी नहीं। वे ध्रुवीय त्रवर्रीताएं हैं जो एक दूसरे की सहायता करती हैं। और इस ध्रुवीयता के कारण ही अत्रस्तत्त्व में हैं। अगर यह ध्रुवीयता नि हो जाए तो सारा संसार ही नि हो जाएगा। इसत्रिए इस गहरी एकताममकता को देखो। केवि ध्रुवीय मबंदुओं की मत देखो, उस आंतररक िारा को देखो जो सबको एक करती है। तंत्र के त्रिए सब कुछ र्त्रवत्र है। स्मरण रखो कक तंत्र के त्रिए सब कुछ र्त्रवत्र है; कुछ भी अर्त्रवत्र नहीं है। इसे इस भांत्रत देखो। एक अिार्मपक आदमी के त्रिए सब कुछ अर्त्रवत्र है। तथाकत्रथत िार्मपक आदमी के त्रिए कुछ चीजें र्त्रवत्र हैं और कुछ अर्त्रवत्र। तंत्र के त्रिए सब कुछ र्त्रवत्र है। 6 कुछ समय र्हिे एक ईसाई र्ादरी मेरे र्ास आया था। उसने कहा कक ईश्वर ने संसार को बनाया। इसत्रिए मैंने र्ूछा, "र्ार् को ककसने बनाया?" उसने कहा, "शैतान ने।" तब मैंने र्ूछा, "शैतान को ककसने बनाया।" तब वह र्ादरी त्रबबूचन में र्ड़ गया। उसने कहा, "र्रमाममा ने ही शैतान को बनाया।" शैतान र्ार् को र्ैदा करता है और र्रमाममा शैतान को। तब असिी र्ार्ी कौन है- र्रमाममा या शैतान? िेकन द्वैतवादी िारणा इसी प्रकार की त्रवसंगत्रतयों की ओर िे जाती है। तंत्र के त्रिए ईश्वर और शैतान दो नहीं हैं। वास्तव में, तंत्र में कुछ ऐसा ही नहीं त्रजसे शैतान कहा जा सके। तंत्र में सब कछ र्त्रवत्र है, सब कुछ भागवत है! और यही सही दृत्रि मबंदु है, गहनतम दृत्रि-मबंदु है। अगर इस संसार में कुछ चीज भी अर्त्रवत्र है तो प्रश्न उठता है कक वह कहां से आती है और वह कैसे संभव है। इसत्रिए दो ही त्रवककर् हैं। र्हिा है नात्रस्तक का त्रवककर्, जो कहता है कक सब कुछ अर्त्रवत्र है। यह भी सही है। वह भी अद्वैतवादी है। उसे संसार में कहीं भी र्त्रवत्रता कदखाई नहीं देती। और दूसरा है तंत्र का त्रवककर्- सब कुछ र्त्रवत्र है। वह भी अद्वैतवादी है। िेककन इन दोनों के मध्य में जो तथाकत्रथत िार्मपक िोग हैं वे वास्तव में िार्मपक नहीं हैं- न तो वे िार्मपक हैं और न ही अिार्मपक- क्योंकक वे सदा द्वंद्व में जीते हैं। उनका र्ूरा िमपशास्त्र दोनों द्वारों को त्रमिाने की कोत्रशश कर रहा है, और वे कभी त्रमिते नहीं। अगर एक भी कोत्रशका, एक भी अणु अर्त्रवत्र है, तो सारा संसार अर्त्रवत्र हो जाता है। क्योंकक वह अकेिा अणु इस र्त्रवत्र संसार में कैसे रह सकता है? यह कैसे संभव है! उसे सबका सहारा त्रमिा है। होने के त्रिए, अत्रस्तत्त्व के त्रिए उसे समस्त का सहारा चात्रहए। और अगर अर्त्रवत्र तत्त्व को र्त्रवत्र तत्त्वों का सहारा त्रमिा है तो दोनों में क्या अंतर हआ? इसत्रिए जगत या तो समग्ररूर्ेण र्त्रवत्र है, बेशतप या वह अर्त्रवत्र है। मध्य की कोई त्रस्थत्रत नहीं है। तंत्र कहता है कक सब कुछ र्त्रवत्र है। यही कारण है कक हम उसे समझ नहीं र्ाते। वह गहनतम अद्वैतवादी दृत्रि है- अगर हम इसे दृत्रि कह सकें तो। र्र यह दृत्रिकोण है नहीं क्योंकक दृत्रिकोण द्वैतवादी ही होगा। तंत्र ककसी चीज के त्रवरुद्ध नहीं, इसत्रिए वह दृत्रिकोण नहीं है। वह अनुभूत एकमव है, एक ऐसा एकमव त्रजसे त्रजया गया है। ये दो मागप हैं- योग और तंत्र। हमारे अर्ंग त्रचत्र के कारण तंत्र प्रभावी नहीं हो सका। िेकन जब कोई भीतर से स्वस्थ होता है, जब भीतर अराजकता नहीं होती, तंत्र का अर्ना सौंदयप है। और तभी वह वही समझ सकता है कक तंत्र क्या है? हमारे अशांत त्रचि के कारण योग का आकर्पण है। योग हमें असानी से आकर्र्पत कर िेता है। स्मरण रहे कक अंत में तुम्हारा त्रचि ही ककसी चीज आकर्पक या त्रवकर्पक बनाता है। तुम ही त्रनणापयक कारक हो। ये दोनों अिग-अिग मागप हैं। मैं यह नहीं कहता हूं कक योग के द्वारा कोई र्हंच नहीं सकता। योग के मागप से भी र्हंचा जा सकता है, िेककन उस योग से नहीं जो आज प्रचत्रित है। जो योग आज प्रचत्रित है वह वास्तव में योग नहीं िेककन वह तुम्हारे से रुग्ण त्रचि की व्याख्या है। र्रम को उर्िब्ि होने के त्रिए योग भी एक प्रामात्रणक मागप हो सकता है, िेकन वह तभी संभव है जब कक तुम्हारे त्रचि स्वस्थ हो, जब वह रुग्ण और बीमार न हो, तब योग का रूर् ही कुछ और होता है। उदाहरण के त्रिए, महावीर का मागप योग है; िेककन वे काम का दमन नहीं करते। उन्होंने काम को जाना है, उसे जीया है, उसे भिी भांत्रत र्ररत्रचत हैं, वह उनके त्रिए व्यथप हो गया है इसत्रिए वह त्रवदा हो गया है। बुद्ध का मागप योग है, िेककन वे भी संसार से गुजरे हैं; वह उससे भिी भांत्रत र्ररत्रचत हैं। वह उससे िड़ नहीं रहे। तुम त्रजसे जान िेते हो उससे मुि हो जाते हो। वह कफर सूखे र्िों की भांत्रत र्ेड़ से त्रगर जाता है। वह मयाग नहीं है, उसमें िड़ाई नहीं है। बुद्ध के चेहरे को देखो, वह िड़नेवािे का चेहरा नहीं है। वे िड़ नहीं रहे हैं। वे ककतने शांत हैं, शांत्रत के प्रतीक हैं और कफर अर्ने योत्रगयों को देखो; िड़ाई उनके चेहरों र्र अंककत है। गहरे में वहां बड़ा 7 शोरगुि है, क्षोभ है, अशांत्रत है, मानो वे ज्वािामुखी र्र बैठे हों। उनकी आंखों में झांको और तुम्हें इसका र्ता चिेगा कक उन्होंने अर्ने समस्त रोगों को ककसी गहराई में दबा रखा है। वे उनके र्ार नहीं गए। एक स्वस्थ संसार में, जहां प्रमयेक व्यत्रि अर्ना प्रामात्रणक जीवन जीता है, जहां कोई ककसी का अनुकरण नहीं करता, बस अर्ने ही ढंग से जीता है, योग और तंत्र दोनों ही मागप संभव हैं। वहां व्यत्रि उस गहरी संवेदनशीिता को उर्िब्ि हो सकता है जो वासनाओं का अत्रतक्रमण करती है, वहां वह उस मबंदु र्र र्हंच सकता है जहां कामनाएं व्यथप होकर त्रगर जाती हैं। योग से भी वह संभव है। िेककन मेरे देखे उसी संसार में योग कारगर होगा जहां तंत्र भी कारगर होगा इसे स्मरण रखें। हमें स्वस्थ और स्वाभात्रवक त्रचि की जरूरत है। त्रजस संसार में स्वाभात्रवक मनुष्य होगा वहां योग और तंत्र दोनों ही वासनाओं के अत्रतक्रमण में सहयोगी होंगे। हमारे रुग्ण समाज में न तो योग और न तंत्र हमारा मागप दशपन कर सकता है, कयोंकक अगर हम योग को चुनते हैं तो इसत्रिए नही कक हमारी कामनाएं व्यथप हो गई हैं। नहीं, कामनाएं तो अब भी अथपर्ूणप हैं। वे त्रगरी नहीं, उन्हें बिर्ूवपक हटाना है। अगर हम योग को चुनते हैं तो उसे दमन की त्रवत्रि के रूर् में ही चुनते हैं। और यकद तंत्र को चुनते है तो त्रसफप चािाकी के रूर् में, िोखे के रूर् में ताकक हम भोग में उतर सकें। इसत्रिए अस्वस्थ त्रचि के साथ न तो योग काम दे सकता है, और न ही तंत्र। वे दोनों ही हमें िोखे में िे जाएंगे। आरंभ करने के त्रिए तो स्वस्थ त्रचि की, त्रवशेर् रूर् यौन के ति र्र स्वस्थ त्रचि की जरूरत है। तब तुम्हें तुम्हारा मागप चुनने में कोई करठनाई नहीं हैं। तुम योग चुन सकते हो; तुम तंत्र चुन सकते हो। बुत्रनयादी तौर से दो प्रकार के िोग हैः स्त्री और र्ुरुर्- जैत्रवक अथों में नहीं, मात्रनसक रूर् में। जो मानत्रसक तौर से र्ुरुर् हैं- आक्रमक, महंसक, बत्रहमुपखी योग उनका मागप है। जो बुत्रनयादी तौर से स्त्रैण है- ग्रहणशीि, त्रनत्रष्क्रय और अमहंसक- तंत्र उनका मागप है। इसे ठीक से ध्यान में रख िे। तंत्र के त्रिए मां कािी, तारा देवी अनेक देत्रवयां, भैरत्रवयां बहत महत्त्वर्ूणप है योग में तुम्हें कहीं ककसी देवी का नाम नहीं सुनाई देगा। तंत्र में देत्रवयां ही देत्रवयां हैं और योग में देव ही देव। योग बाहर जाती हई ऊजाप है और तंत्र भीतर जाती हई ऊजाप है। इसत्रिए आिुत्रनक मनोत्रवज्ञान की भार्ा में कह सकते हैं कक योग बत्रहमुपखी है और तंत्र अंतमुपखी। इस त्रिए यह व्यत्रिमव र्र त्रनभपर करता है। अगर तुम अंतमुपखी हो, तब संघर्प, िड़ाई तुम्हारे त्रिए नहीं है। अगर तुम बत्रहमुपखी व्यत्रि हो, तब संघर्प तुम्हारा मागप है। िेककन हम उिझे हए हैं, त्रसफप उिझन हैं सब अस्तव्यस्त है, सब गड़बड़ है। इसी कारण ककसी से सहायता नहीं त्रमिती। उिटे, सब गड़बड़ हो जाता है। योग तुम्हें त्रनक्षुब्ि करेगा, तंत्र तुम्हें अशांत करेगा, हर और्त्रि तुम्हारे त्रिए एक नई बीमारी र्ैदा करेगी, क्योंकक चुनाव करनेवािा ही रोगी है, त्रवकृत है, उसका चुनाव ही रुग्ण है, रोग- ग्रस्त है। इसत्रिए मेरा यह मतिब नहीं कक योग के द्वारा तुम र्हंच ही नहीं सकते। मैं तंत्र र्र त्रसफप इसत्रिए जोर देता हूं क्योंकक हम समझ र्ायेंगे कक तंत्र क्या है? 8 तंत्र, अध्यात्म और काम दूसरा प्रिचन का अंश, तात्रं त्रक प्रमे त्रशव देवी से कहते हैंंः "जब प्रेम ककया जा रहा हो, त्रप्रय देवी, प्रेम में शाश्वत जीवन की भांत्रत प्रवेश करो।" त्रशव प्रेम से शुरू करते हैं। र्हिी त्रवत्रि प्रेम से संबंत्रित है, क्योंकक प्रेम ही वह त्रनकटतम अनुभव है त्रजसमें तुम त्रवश्राम र्ूणप, ररिैक्स होते हो। अगर तुम प्रेम नहीं कर सकते तो तुम्हारा त्रवश्रामर्ूणप होना असंभव है। अगर तुम त्रवश्रामर्ूणप हो सको तुम्हारा जीवन एक प्रेममय जीवन होगा। तनाव से भरा व्यत्रि प्रेम नहीं कर सकता। क्यों? तनाव से भरा व्यत्रि हमेशा ककसी उद्देश्य के त्रिए जीता है। वह िन कमा सकता है, िेककन प्रेम नहीं कर सकता। क्योंकक, प्रेम का कोई उद्देश्य नहीं प्रेम कोई वस्तु नहीं। तुम उसका संग्रह नहीं कर सकते; तुम उसे बैंक में जमा-र्ूंजी नहीं बना सकते, तुम उससे अर्ने अहंकार को मजबूत नहीं कर सकते। त्रनत्रित ही प्रेम एक बहत ही अथपहीन कृमय है, त्रजसका उसके र्ार कोई अथप नहीं, कोई उद्देश्य नहीं। उसका अत्रस्तत्त्व ककसी और चीज के त्रिए नहीं अर्ने ही त्रिए है। प्रेम प्रेम के त्रिए है। तुम कुछ र्ाने के त्रिए िन कमाते हो, वह एक सािन है। तुम घर बनाते हो ककसी उद्देश्य से, उसमें रहने के त्रिए बनाते हो, यह एक सािन है। प्रेम सािन नहीं है। तुम प्रेम क्यों करते हो? ककसत्रिए करते हो? प्रेम अर्ने में एक साध्य है। इसीत्रिए बुत्रद्ध जो बहत त्रहसाबी-ककताबी है, तकपवान है, जो हमेशा उर्योत्रगता की भार्ा में सोचती है, प्रेम नहीं कर सकती। और जो बुत्रद्ध हमेशा ककसी उर्योत्रगता, ककसी उद्देश्य की भार्ा में ही सोचती है, वह सदा तनावर्ूणप रहती है। क्योंकक उद्देश्य की र्ूर्तप भत्रवष्य में होगी, अभी और यहां कभी नहीं होती। तुम मकान बनाते हो, तुम अभी और इसी समय उसमें नहीं रह सकते। र्हिे तुम्हें उसे बनाना र्ड़ेगा तुम भत्रवष्य में ही उसमें रह र्ाओगे, अभी नहीं। तुम िन कमाते हो, बैंक में िन रात्रश भत्रवष्य में जमा होगी, अभी नहीं। उर्ाय तुम्हें अभी करने होंगे, फि भत्रवष्य में आएंगे। प्रेम हमेशा यहीं है। उसका कोई भत्रवष्य नहीं। इसीत्रिए प्रेम ध्यान के अत्रत त्रनकट है। इसीत्रिए मृमयु भी ध्यान के अत्रत त्रनकट है; क्योंकक मृमयु अभी और यहीं है। वह कभी भत्रवष्य में नहीं घटती। क्या तुम भत्रवष्य में मर सकते हो? केवि वतपमान में ही मर सकते हो। कोई कभी भत्रवष्य में नहीं मरता। तुम भत्रवष्य में कैसे मर सकते हो या तुम अतीत में कैसे मर सकते हो? अतीत जा चुका, वह अब है ही नहीं, इसत्रिए तुम उसमें मर नहीं सकते। भत्रवष्य अभी आया नहीं, इसत्रिए तुम उसमें कैसे मर सकते हो? मृमयु हमेशा वतपमान में घटती है। मृमयु, प्रेम, ध्यान ये सभी वतपमान में ही घरटत होते हैं। इसत्रिए अगर तुम मौत से भयभीत हो, तो तुम प्रेम नहीं कर सकते। अगर तुम प्रेम से भयभीत हो, तो तुम ध्यान नहीं कर सकते। अगर तुम ध्यान से भयभीत हो तो तुम्हारा जीवन व्यथप है- उर्योत्रगता की दृत्रि से व्यथप नहीं बत्रकक इस अथप में कक तुम कभी जीवन में ककसी आनंद को अनुभव न कर सकोगे... त्रनरथपक। 9 प्रेम, ध्यान, मृमयु- इन तीनों को एक दूसरे के साथ जोड़ने की बात त्रवत्रचत्र िग सकती है िेककन ऐसा नहीं है। ये तीनों समान अनुभव हैं। इसत्रिए अगर तुम एक में प्रवेश कर सको तो शेर् दोनों में प्रवेश कर सकते हो। त्रशव प्रेम से आरंभ करते हैं वह कहते हैं, "जब प्रेम ककया जा रहा हो, त्रप्रय राजकुमारी, प्रेम में शाश्वत जीवन की भांत्रत प्रवेश करो।" इसका क्या अथप है? बहत-सी बातें हैं। एक, जब तुमसे कोई प्रेम कर रहा हो तो तुम्हारा कोई अतीत नहीं होता, कोई भत्रवष्य नहीं होता। तुम वतपमान में होते हो। क्या तुमने कभी ककसी से प्रेम ककया है? अगर तुमने कभी प्रेम ककया है, तब तुमने अनुभव ककया होगा कक मन वहां नहीं है। इसीत्रिए तथाकत्रथत बुत्रद्धमान िोग कहते हैं कक प्रेमी अंिे होते हैं, बुत्रद्धहीन और र्ागि। प्रेमी अंिे होते हैं क्योंकक उनके र्ास वे आंखें नहीं है जो भत्रवष्य को देख सकें और जो वे कर रहे हैं उसका त्रहसाब ककताब िगा सकें। वे अंिे हैं। वे अतीत को नहीं देख सकते। प्रेत्रमयों को क्या हो जाता है? वे त्रबना ककसी भूत और भत्रवष्य का त्रहसाब िगाए अभी और यहीं होते हैं त्रबना ककसी र्ररणाम की मचंता ककए, इसीत्रिए िोग उन्हें अंिा कहते हैं। वे हैं। वे उन िोगों की नजरों में अंिे हैं जो बहत त्रहसाबी-ककताबी हैं, और जो त्रहसाबी ककताबी नहीं है उनके त्रिए वे द्रिा हैं। जो त्रहसाबी ककताबी नहीं है वे प्रेम को असिी आंख, असिी दृत्रि की भांत्रत देखेंगे। इसत्रिए र्हिी बात- प्रेम के क्षण में अतीत और भत्रवष्य दोनों ही नहीं रहते। एक सूक्ष्म बात समझने जैसी हैः- जब न भूत काि है न भत्रवष्य तब क्या तुम इस क्षण को वतपमान कह सकते हो? वतपमान केवि इन दोनों के बीच में हैं- भूत और भत्रवष्य के बीच। यह साक्षेर् है। अगर कोई भूत नहीं कोई भत्रवष्य नहीं, तब इसे वतपमान कहने का क्या अथप है? यह त्रनरथपक है। इसीत्रिए त्रशव वतपमान शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे कहते हैं अनंत जीवन- शाश्वतता, शाश्वतता में प्रवेश करो। हम समय को तीन कािों में त्रवभात्रजत करते हैंंः- भूत, वतपमान, भत्रवष्य। त्रवभाजन गित है, त्रबककुि गित है। समय वास्तव में भूत और भत्रवष्य है। वतपमान समय का त्रहस्सा नहीं है, वतपमान शाश्वतता का त्रहस्सा है। वह जो बीत चुका है वह जो आने वािा है, समय है। जो है वह समय नहीं, क्योंकक यह कभी बीतता नहीं यह सदा है। अभी सदा यहां है- सदा यहां है। यह अभी अंतहीन है, शाश्वत है। अगर भूत से तुम चिो, तुम कभी वतपमान में नहीं आते। भूत से तुम हमेशा भत्रवष्य में चिे जाते हो। ऐसी कोई घड़ी नहीं आती जो वतपमान हो। भूत से तुम सदा ही भत्रवष्य में र्हंच जाते हो। वतपमान से तुम कभी भत्रवष्य में नहीं जा सकते। वतपमान से तुम गहरे और गहरे... और भी वतपमान में और वतपमान में... वही अनंत-जीवन है। हम इसे इस तरह भी कह सकते हैंंः भूत से भत्रवष्य समय है। समय का अथप है कक सीिे सर्ाट मैदान में, सीिी रेखा में चिना इसे या हम यूं कह सकते हैंंः यह क्षैत्रतज, हाररजोन्टि है। जैसे ही तुम वतपमान में होते हो आयाम बदि जाता है। तुम ऊध्वापिर, वर्टपकि गत्रत करने िगते हो या ऊर्र या नीचे, ऊंचाई की ओर या त्रनचाई की ओर गत्रत करने िगते हो। िेककन तब तुम सीिी सर्ाट, एक ही रेखा में गत्रत नहीं करते। कोई बुद्ध, कोई त्रशव समय में नहीं, अनंतता में जीता है। जीसस से ककसी ने र्ूछा, "तुम्हारे र्रमाममा के राज्य में क्या होगा? जो आदमी यह उससे र्ूछ रहा था उसका तामर्यप समय से न था। वह र्ूछ रहा था कक उसकी इच्छाओं का क्या होगा, वे कैसे र्ूरी होंगी? क्या वहां जीवन त्रचरथायी होगा या वहां मृमयु होगी? क्या वहां कोई दुख और र्ीड़ा होगी? क्या वहां कोई त्रनम्न और उच्च व्यत्रि होंगे। वह इसी संसार की चीजों के बारे में र्ूछ रहा था। तुम्हारे र्रमाममा के राज्य में क्या-क्या होगा? 10
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